पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९९

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दंग होत सुर-राज गंग को रंग निहारत । भरति भीर के सुख सुपास को व्याँत विचारत ॥ नव-पुर-न्याधन-हेत लेत विधना साँ पट्टा। सुचि रचना को करत विस्वकर्या सौ सट्टा ॥ २५॥ इहि विधि तरल-तरंग गंग महिमा उदघाटति । वसुधा सुधा-निवास करति विबुधालय पाटति ।। ठाम ठाम बहु धर्म-धाम अभिराम वनावति । मुक्ति भुक्ति के अटल सदाव्रत-छेत्र चलावति ॥ २६॥ ब्रह्मावर्त पुनीत पुरी आई उमगाई। करि सनमान प्रदान ताहि महिमा अधिकाई ॥ गंग-परस तें पान-गौन है सरस सुहावन । करत रम्य पाराम सरिस चहुँ दिसि उपवन बन ॥ २७ ॥ मुनि-गन-मन सुख भरत हरत आतप-तप-तापहि । लै लै तूंवा चलत धाइ सव तजि जग-जापहि ॥ न्हाइ पाइ जल-स्वाद ब्रह्म-चरचा विस्तारत । नेति-नेति निवटाइ ठाइ इति-इति-धुनि धारत ॥ २८॥ पुर-वासिनि की भीर तीर आवति उमगाई । विस्मय - संक - विनोद - मोद - स्रद्धा - सरसाई ॥ स्नान दान करि सकल पूजि सुरसरि सुख-साने । करत बैठि जल-पान लोक परलोक भुलाने ॥ २९ ॥