पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०

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ठाम एक अभिराम मंडलाकृति तहँ भ्राजै, जाको बानक बिसद बिसेस विचित्र बिराजै । मेदिनि-मंडल-मंजु-मुद्रिका-मनि मन मानौ, जिहि अंकित चित होत प्रेम-पथ को परवानौ ॥१६॥ सम उँचान के बिटप बलित-बल्ली चहुँ ओरनि, हरित-बनात-कनात कलित मानहुँ कल कोरनि । तिनपै रंग-बिरंग सुमन, पल्लव, पंछी-गन, सो मानौ बहु चित्र विचित्र रचे मन-भावन ॥ १७ ॥ पत्र-बीच है झलकति कहूँ कलिंद-नंदिनी, कोटि-कोटि-कलि-कलुष-करार-निगर-निकंदिनी । रस सिँगार की सरस सरित त्रय-ताप-नसावनि, कूर-कुपथ-गामिनि की पातक-पंक-बहावनि ॥१८॥ असित-ओप असि दुख-दरिद्र-दल-गंजन-हारी, हरि-जन-पांडव-काज लाज-द्रौपदि की सारी । स्याम रंग सौं लिखी प्रेम-पद्धति की पंगति, जाकी टीका सब पुरान-इतिहासनि रंगति ॥ १९ ॥ अखिल-लोक-नायक-प्रमोद-दायक-पटरानी, प्रिय प्रीतम के रुचिर रंग राँची सुख-सानी । ब्रज-रहस्य के परम तत्त्व की जो कछु पूँजी, इक याही की कृपा-कोर ताकी कल कूँजी ॥२०॥