पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०१

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चहुँ दिसि संख-मृदंग-झांझ-भेरी-धुनि छाई । मनहु मंजु राज्याभिषेक की वजति वधाई ।। जय जय हर हर तुमुल सब्द नभ-मंडल पूरत । जिहिँ सुनि दुरित दुरूह दौरि दुरि दूरि विसूरत ॥ ३५ ॥ दोउ धारा टकराइ उछरि मुरि पुनि जुरि धावति । सेत-नील-घन-पाँति लरति नभ में ज्याँ भावति ॥ हलरति लहर दुरंग संग मिलि-जुलि मनभाई। तरु-तर ज्याँ चल-पत्र-बीच है परति जुन्हाई ।। ३६ ॥ सुकृति-वृंद सानंद जुरत जोहत संगम पर। तिनके पुन्य-प्रभाव हँसत जोगी जंगम पर ॥ कोउ अन्हात गहि तीर कोऊ मंचनि पर चढ़ि-चढ़ि । कोउ तरनी ते उतरि मंझ-धारा में बढ़ि-बढ़ि ॥३७॥ आर-पार की माल कोऊ चढ़ि चाव चढ़ावत । कोउ थाननि के थान तानि पियरी पहिरावत ।। कोऊ भरे चित भाव नाव चढ़ि खेलत नावर । कोउ पट भूषन देत कोऊ बाँटत न्यौछावर ॥ ३८ ॥ सुघर-र र-सलोनी-जुवति-जूह गृह-काज बिसारे। गंग-परस पर सरस काम-कीड़ा-सुख-वारे ॥ विविध-विभूषन-वसन-बलित विहरत कहुँ तट पर । दुहरी दीपति करति देह-दीपति परि पट पर ॥ ३९ ॥