पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०२

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कोउ अन्हाति सकुचाति गात पट-पोट दुराए । कोउ जल-बाहिर कढ़ति सु-उर-अरुनि कर लाए ॥ कोउ ऐं इति इतराति उच्च-कुच-कोर उचावति । लचकावति कोउ लंक बंक भृकुटी मचकावति ॥४०॥ मृग-मद चंदन-बंदनादि कोउ चायनि चरचति । दधि अच्छत तंबल फूल फल कोउ लै अरचति ॥ चित्रित होति विचित्र भाँति जल-पाँति सुहाई । महि-बेनी पर मनहु चारु-चूनरि-छवि छाई ॥४१॥ जीवन-मुक्त बिरक्त कहूँ बिचरत सुख-साने । मुनि-मंडल कहुँ कहत सुनत इतिहास पुराने ॥ कहुँ द्विज-गन सुर साधि बाँधि लय बेद उचारत । कहुँ कवि-जन स्वच्छंद छंद-बंधहि बिस्तारत ॥ ४२ ॥ इमि सब-तीरथ-मय देवधुनि धरि प्रयाग-गौरव गह्यौ । मनुरुचिरराज्य-अभिषेक-हितसब-तीरथ-सुचि-जल लह्यौ ॥४३॥