पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०३

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एकादश सर्ग अति उछाह गंग जमुन ले असि दुधार हे चली चमंहति । काटति पातक-व्यूह विकट जम-जूह धमंकलि॥ विध्य-छेत्र सौ होति करति चरनादिहि नंदित । विंध्य-हिमाचल-मध्य-देस सुर-नर-मुनि-चंदित ॥१॥ सौ चाह-भरी आनंद-सरसाई। उमगति तरल-तरंग-संग कासी नियराई ॥ मिली तहाँ अगवानि मानि असि जाति-मिताई। चली वतावति बाट जतावति निखिल निकाई ॥२॥ संभु-पुरी-सुखमा अपार सुरधार निहारत। ताकी महिमा को महान महि मान विचारत ॥ चली मंद गति धारि धाम अभिरामहि देखति । लघु बीचिनि करि गुन-अपार-लेखा उर लेखति ॥ ३॥ सी चि स्वाति जल मुक्ति-खेत-बल विपुल बढ़ावति । भव-भय-भंजनि संभु-सक्ति पर पानि चढ़ावति ॥ महा मसानहिँ परम-बाट को घाट वनावति । चिर-इच्छित-फल-लाहु मुमुच्छुनि तुच्छ जनावति ॥ ४॥