पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनिकनिका लौँ आइ निरखि सुखमा सुख-सानी । धंसी धाइ तिहिँ कुंड मुंडमाली-मनमानी ॥ स्वाति-घटा सुभ भव-निधि अच्छय सीप समाई। मुक्ति-पांति धरि देह लगी विथुरन मन-भाई ॥ ५ ॥ भूप भगीरथ उतरि तुरत रथ सौँ सुख लीन्यौ । संध्यादिक करि चंदचूर को बंदन कीन्यौ ॥ सुखमा निरखि अनूप जानि सिव-रूप निवासी । सबनि नवायौ सीस बिबिध बर बिनय बिकासी ॥६॥ पुनि सोच्यौ सकुचाइ कहैं किहिँ भाय कढ़न काँ। परम बंद्य स्वच्छंद गंग सौं बिनइ बढ़न कौँ ॥ पर पातक पर समुझि सहज अमरष मन ताके। भयौ बहुरि संतोष सपदि मन महि-भर्ता के ॥७॥ जोरि पानि तब माँगि बिदा सुभ सिवसंकर सौं । करि प्रनाम अभिराम धाम कासिहुँ आदर सौँ ॥ सगर-सुतनि के साप-ताप को दाप बखान्यौ । सुनत गंग स-उमंग चेति चलिबा चित अान्यौ ॥ ८॥ कढ़ी भरत आतंक अंक दै मनिकनिका कौँ। सिवहिँ बिलोकति बंक करति गत-संक सिवा कौँ ॥ चली करति हुंकार धार-बिस्तार बढ़ावति । महि-महिमा की भरति गौद मन मोद मढ़ावति ॥९॥