पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०७

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लै कर चंदन-वंदनादि कोउ सादर डारति । मनु पराग अनुराग-सहित कंजनि साँ ढारति । कोउ अंजलि भरि सुमन सु-मन भरि भाव चढ़ावति । सुमन-सुमन-मन महि-उपजन को चाव चढ़ावति ॥ २० ॥ कोउ ढारति सिर छाइ छीर लीन्हे करवा कर । सुर-धारा पर सुधा-धार मनु स्रवत सुधाधर ।। सजि बातिनि की पाँति उमगि कोउ करति भारती। विधि-सरवस पर वारति मनि-गन मनहु भारती ॥ २१ ॥ असन बसन बदु भाँति भेटि कोउ सानंद राजति । मनहु परम-पथ-काज साज सुख के सव साजति ॥ कोउ झुकि करति प्रनाम टेकि महि माथ मयंकहि । मेटति मना विसाल भाल के कठिन कु-अंकहि ॥ २२ ॥ माँगति अचल सुहाग मंजु अंजलि कोउ धारे । कलप-लता मनु चहति परम-फल पानि पसारे ॥ इहिँ विधि विविध विधान ठानि विधिवत सव पूजति । मंगल-गीत पुनीत प्रीति-संजुत कल कूजति ॥ २३ ॥ बहु रंगनि की चलति धारि सुभ अंगनि सारी । मनहु कलित कसमीर-तीर तैरति फुलवारी । लिए सकल जल-पात्र पसारति रूप-उज्यारी । निखिल-लोक-ससि मनहु सुधा भरि चलत सुखारी ॥ २४ ॥