पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३०९

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काँ। बढ़ी वहुरि सुरधार धरा-दुख-दारिद मेटति । कोसी आदि अनेक नदिनि निज संग समेटति ॥ अंग वंग के दुरित भंग करि रंग रचावति । जंगल-जंगल माहिँ महा मुद मंगल छावति ॥ ३० ॥ सुंदरवन मैं भरति भूरि सुठि सुंदरताई । सगर-सुतनि हित मानि आनि सागर समुहाई ॥ जानि भगीरथ-बंस-भरि-जस-भाजन भारी। सहस-धार है चली भरन तिहिँ उमग-उभारी ॥ ३१॥ सागर-तरल-तरंग-गंग-संगम देखन तारन-प्रवल-प्रभाव-भाव उर अवरेखन काँ॥ भूप-भगीरथ-अमित-सुजस-लेखा लेखन सगर-सुतनि की साप-औधि-रेखा रेखन कौं ॥ ३२॥ दमकावत दुति दिब्य भब्य भूषन चमकावत। गमकावत सुर-सुमन विसद वाहन हमकावत ॥ जुरे उमगि सुख मानि आनि त्रिभुवन के वासी । भरी नीर-निधि-तीर भीर नृप-पुन्य-प्रभा सी ॥ ३३ ॥ कहुँ बिधि बिचुधनि संग बेद-धुनि मधुर उचारत । रचि तांडव त्रिपरारि कहूँ डमरू डमकारत ॥ कहुँ हरि हरन कलेस बट्यौ स्रम गुनि गुन गावत । कहुँ सुर-राज स्वराज बढ़त लखि मोद मचावत ॥ ३४ ॥ काँ।