पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जहँ-तहँ विद्याधर विचित्र कौतुक बिस्तारत । सिद्धि बगारत सिद्ध सुजस चारन उच्चारत॥ गावत गुन गंधर्व नचत किन्नर दै तारी। उमगि भरत कल कच्छ यच्छ सुख संपति भारी ॥ ३५ ॥ इक दिसि चढ़े बिमान भानु-कुल-भव्य-पितर-गन । सिबि दधीचि हरिचंद आदि आनंद-मगन-मन ॥ निज सपूत की अति अभूत करतूति निहारत । साधु-बाद दै उमगि आँस-मुकता बर वारत ॥ ३६ ॥ कहुँ मुनि-गन मन-मगन लगन सुरसरि की लाए । चहुँ दिसि चितवत चाह-भरे भाजन खनियाए ॥ नाग-कन्यकनि-संग कहूँ बिचरत बढ़ि तट पर। सेस बासुकी आदि कान दीने आहट पर ॥ ३७॥ बाहन बिबिध बिधान जुरे तहँ आनि सुहाए सगर-सुतनि के काज सकल सुख-साज-सजाए ॥ कहुँ जाननि की सजी सुखद सुभ सुंदर स्पेनी । सागर-तट तैं मनु सुरपुर लगि लगी निसेनी ॥ ३८ ॥ कहुँ हंसनि के बिसद बंस काटत कल कावा । कहूँ गरुड़-गन करत धरा-अंबर-बिच धावा ॥ बलिबरदनि के बंद कहूँ बिचरत तट घूमत । कहुँ ऐरावत-झुड सुंड फेरत झुकि झूमत ॥ ३९ ॥