पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३११

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इक दिसि सजे सिँगार लसति सुर-सदा-सुहागिनि । सगर-सुतनि वरि बेगि होन-हित अति वड़-भागिनि॥ विचरत कौतुक-निरत देव-ऋषि विरति विसारे । गंग - सुजस - रस - लीन बीन काँधे पर धारे ॥४०॥ इहि विधि ठाटे ठाट-बाट सव सानंद हेरत। ग्रीवा चरन उचाइ चपल चहुँघाँ चख फेरन ॥ हर-हर सब्द पुनीत उठ्यो तब लॉ बेला ते । इत जय-जय-धुनि धाइ भरी नभ लौ मेला ते ॥४१॥ उमगति - अमित - तरंग - तुग - बर - वाँह पसारे । फेन - फूल - सिंगार - हार - उपहार सुधारे ॥ वढ्यौ वेगि वारीस सुखद सुरसरि भेटन करें। सुधा-हीन है भयौ छीन सो दुख-मेटन कॉ॥ ४२ ॥ सहस-धार सुरधार मिली तिहिँ अति आदर सौं। विज्जु-छटा मनु छहरि लहरि विहरी बादर साँ॥ किधी नील-सत-सिखर परी ढरि विखरि जुन्हाई । कै मरकत के छत्र सेत चामर-छबि छाई ॥४३॥ मीन मकर सिसुमार उरग आदिक उतराने । लहत गंग - सुभ - परस - पान परमानंद - साने ॥ पाप-साप-वस विवस परे तिनके जे तन मैं। ते धरि धरि बर वपुष बेगि बिहरत सुर-गन मैं ॥ ४४ ॥