पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उतरि उतरि सुर-बूंद सकल सानंद कलोलत । डामाडोल हिंडोल-सरिस लहरनि लगि डोलत ॥ बहु बिधि रचत विनोद मोद चहुँ-कोद परस्पर । ठमकत ठेलत डटत हटत हटकत झटकत कर ॥ ४५ ॥ पग जमाइ झुकि झपट कोऊ लहरनि की झेलत । कोउ घूटुनि महि टेकि अटल औरनि अवहेलत ॥ कोउ भाजत भय-भभरि ताकि उत्तंग तरंगनि । कोउ साहस करि बढ़त पढ़त अस्तुति बहु रंगनि ॥ ४६॥ इहि बिधि सकल अन्हाइ पाइ सुख सुकृत कमाए । पूजि सहित सनमान गान निज जाननि आए ॥ सजि-सजि भूषन बसन लगे चितवन चित दीन्हे । तारन - कौतुक - लखन - लालसा लोचन लीन्हे ॥ ४७॥ इमि गंगासागर धाम सुभ जगत-उजागर जस लह्यौ । जउ सागर-रूप अनूप तउ भव-सागर-बोहित भयौ ॥४८॥