पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वादश सर्ग चाप चढ़ाए॥ कौतुक निरखि अनूप भूपहू निपट अनंदे। पितरनि कियो प्रनाम देव-बूंदनि-पद वंदे ॥ पुनि सुर-धुनि-मन पाइ नाइ सिर जान बढ़ायो । पितरनि परम प्रसन्न जानि मन मोद मढ़ायौ ॥ १ ॥ इत सुरसरि भरि सिंधु उभरि उर ओज बढाए । सगर सुतनि के साप-दाप पर चली चपल अति सुमन-बूंद-मन आनँद पूरति । फिरि-फिरि-लखत-ससंक भूप-चिंता चकचूरति ॥ २ ॥ कपिल-धाम उत धाइ धूम सुरधुनि की धमकी । सुभ-आगम की अोप उमगि दसहूँ दिसि दमकी ॥ सगर-सुतनि-की-छार-छई छिति भूरि भयावनि । लगी लगन है मोद-मगन अति सुभग-सुहावनि ॥ ३ ॥ सगर-कुमारनि-संग तरु-बल्ली-वन । लगे बहुरि हरियान मनहु पाए नव जीवन ॥ सरस्यो सुखद समीर कपिल पल पुलकि उघारे । निरखि धाम अभिराम ताप जारन के टारे ॥ ४ ॥