पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भूमि-भूमि झुकि लचत नचत किन्नर अनुरागे । भानु-बंस-जस-गान करत चारन सँग लागे ॥ हरषत बरषत सुमन सुमन बढ़ि बाट बतावत । बादर धरि धुनि मधुर छत्र सादर सिर छावत ॥१५॥ बाजे बिबध बिधान ब्योम बाजे सुभ-साजे । गाजे पुन्य-समूह जूह पातक के भाजे ॥ पूरत परम प्रमोद चली चहुँ-कोद बधाई। जय-जय की धुनि-धूम-धाम-धामनि मैं धाई ॥ १६ ॥ भूप-भगीरथ-अति - उदार-अति-अद्भुत - करनी । तारनि-तरल-तरंग-गंग-महिमा मन - हरनी॥ सुर किन्नर गंधर्व सर्व लखि आनँद-पागे । पुलकि अंग स-उमंग गंग-गुन गावन लागे ॥ १७ ॥ करि अस्तुति बहु भाँति सकल मिलिमाथ नवायौ। छोभ-समन सुभ साम-गान धरि ध्यान सुनायौ ॥ स्वस्ति-पाठ पढ़ि चढ्यौ-गंग-चित-रोष निवारयौ । हरयो अमित उद्वेग सांति-सुख जग संचार्यो ॥ १८ ॥ न्हाइ-न्हाइ चढ़ि जाय पूजि स्रद्धा सरसाए । नंदनादि-बन-सुमन - हार - उपहार चढ़ाए॥ कपिलदेव सौं मिलि जुहारि स्रद्धा-सरसाए । तोष-जनित-आमोद-अोप आनन पर छाए ॥ १९ ॥