पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३१७

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निज-निज-देव-समूह-संग जुरि जूह सँवारे । विधि हरि हर हरपाइ हुलसि नृप-निकट पधारे ।। पुलकित-सुभग-सरीर नीर नैननि अवगाहे । इक सुर से सब भूप-सुकृत-स्रम-सुजस-सराहे ॥ २० ॥ अभिनंदत सुर-बूंद देखि भूपति सकुचाने । धाइ पाय लपटाइ ललकि आनँद सरसाने ॥ बहुरि जुगल कर जोरि कोरि अस्तुति मन ठानी । पै भावनि की भीर चीरि निकसी नहिँ बानी ॥ २१ ॥ सावर-मंत्र-समान अमिल पाखर कछु आए । जिहिँ प्रभाव सौँ भूप-भाव सबके मन छाए ॥ बढ़ि कृतज्ञता उमड़ि द्रवित है अजगुत कीन्यौ रसना को कल काम सरस नैननि सौ लीन्यौ ॥ २२ ॥ भए देवहू मगन भूप की भक्ति निहारत । सके न कहि कछु उमहिँ मनहि मन रहे विचारत ॥ तब बिरंचि अगुवाइ उमगि वर बचन उचारे । प्रेम-पुलकि अवनीस-सीस कंपित कर धारे ॥ २३ ॥ धन्य भानु-कुल-भानु धन्य तप-तेज-तपाकर । जासौं लहत प्रकास सुकृत-सुख-सुजस-सुधाकर ॥ मात-पिता-दोउ-वंस उजागर तुम अति कीने । महि-बासिनि के सकल दोष-दुख-तम दरि दीने ॥ २४ ॥