पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३१९

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अब त्रिपंथगा गंग गरवि तब सुता कहहै । भागीरथी पुनीत नाम सौं जग जस छैहै ॥ वेता जुग मुनि बालमीकि द्वापर पारासर । कलि मैं यह सुचि चरित चारु गैहै रतनाकर ।। ३० ॥ देव पितर सब भए तृप्त जग जीवन भीन्यो। जीव जंतु सु-अघाइ पाइ जल अति सुख लीन्यौ ॥ करि नहान जल-दान-क्रिया सब वेद-वखानी । अब तुमहूँ तो पियौ पूत चिल्लू-भर पानी ।। ३१ ॥ सकल-स्वर्ग-अपवर्ग-लाहु तुम तप-बल पायौ । अब दै कहा उमंगि करें हमहूँ मन-भायौ ॥ सिख आसिख यह देत तदपि हित-हेत मुहाई । सुख सौं भोगी धर्म-सहित कल कर्म-कमाई ॥३२॥ तब हरि हित करि हेरि हुलसि हँसि अति मृदु वानी। बोले बलित-बिनोद कृपा-रस सौं सरसानी ॥ दै सुरसरित स्वयंभु संभु सिर लै जस लीन्यौ । इहिँ समाज हम लहत लाज कछु काज न कीन्यौ ॥ ३३ ॥ यातें यह बरदान मान-जुत दै सुख पावत । तब जस जग थिर थापि आपनी सकुच सरावत ॥ जब लौँ सुरसरि-धार-हार बसुधा उर धारै। तब लौँ तन तव सुजस छीर-सर-चीर सँवारै ॥ ३४ ॥