पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३२

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" कंज-कली-आकृति, समान सब, पंच-रँग-पूरे, लाइ सुमन बहु भाँति पाँति करि रचे कँगरे । लखि तीछन सोभा तिनकी यह परत जनाई, मानहु कुसुमायुध बाननि की बाढ़ जमाई ॥२६॥ लसत बीच इक मत्त मोर सिर पुच्छ पसारे, परत पिछान न बन्यौ सुमन चुनि बहु-रंग-वारे । कदम-कुसुम की बंदनवार बनाइ लगाई, झूमत जाकै बीच एक झूमर सुख-दाई ॥ २७ ॥ चारु चारि डोरी रेसम की लै लटकाई, जिनमैं फूलनि की बहु ललित ल लपटाई। परयो पाट सुख-कंद बिमल चंदन को तिनमैं, पसरति मंद सुगंध दंदहर बिपिन बिपिन मैं ॥ २८ ॥