पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३२०

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गंग-अवतरन-चरित चारु जे सादर गावै । पढ़ें गुर्नै मन लाइ सुनें कै सरुचि सुना ॥ संपति संतति मान ज्ञान गुन ते बहु पाएँ । बिलसि बिलास अनंत अंत सुर-लोक सिधा ॥ ३५ ॥ औरहु जो बर चहहु लहहु सकुचहु जनि बोलौ । दरि दुराव चढ़ि चाव भाव अंतर को खोला ॥ हाँ हाँ सकुच बिहाइ कही इच्छा मनमानी । भुज उठाइ इमि उठे वोलि संकर दिन-दानी ॥ ३६॥ सबनि जोरि जुग हाथ कह्यौ नृप माथ नवाए । है सनाथ हम नाथ सकल इच्छित फल पाए ॥ तदपि यहै करि बिनय चहत अज्ञा-अनुगामी । भारत पर निज कृपादृष्टि राखहु नित स्वामी ॥ ३७॥ सदा होइ यह धर्मधान्य-धन-धीरज-धारी । बिद्या बुद्धि बिबेक बीरता को अधिकारी ॥ याके पूत सपूत नित्य निज करतब साधैं । गंग गाय गोलोक-नाथ सादर आराधै ॥ ३८॥ करें प्रेम का नेम सकल मिलि छेम पसाएँ । याकै हित हठि पान पानि-तल पर सब धाएँ ॥ जब जब बिपति-समुद्र याहि बोरन काँ कोपै । तव तब आप-प्रताप ताहि कुंभज है लोपै ॥ ३९॥