पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३२४

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जर आनंद-तरंग गंग गिरि-गायक-नंदिनि । जय जाह्नवी पुनीत ईति-भव-भीति-निकदिनि ॥ जय दिनेस-कुल-सुभ्र-सुजस-त्रिभुवन-संचारिनि । भागीरथी कहाइ अमर-कल-कीरति-कारिनि ॥ १ जय सुचि-सुकृत-पयोधि-सुधा की धार सुधारी। चारु-चार-फल-देन - पुन्य-तरु - सी चनहारी॥ जाकै अर्घ अघात सुधा-भोगी बिबुधाकर । जिहिँ नव-जीवन-पूरि भूरि उमगत रतनाकर ॥ ११॥ नृप-अस्तुति सुनि उठी गंग-उर कृपा-फुरहरी । जल-तल पर लहरान लगी आनँद की लहरी ॥ यह धुनि मंजुल मधुर धार-कलकल तें आई। धन्य भगीरथ भूप धन्य तव पुन्य-कमाई ॥ १२ ॥ यह तप-तेज प्रचंड सील की यह सियराई । पावक पाला लसत सुमिल तुम मैं इकठाई ॥ सब देवनि बर दिए दिब्य मन-मोद-मढ़ाए । अब हमहूँ सौं लहौ चहौ जो चाव-चढ़ाए ॥ १३ ॥ यह सुनि नृप कर जोरि निवेदन सादर कीन्यौ । सगर-कुमारनि तारि हमैं सब कछु तुम दीन्यौ। दानी परम उदार पाइ पर तृषा न त्यागति । यातें यह बरदान-लाहु-लालच जिय जागति ॥ १४ ॥