पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३२६

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उतरि तुरत नानाह तहाँ दीन्यौं सुध दरसन । धाइ-धाइ सुख पाइ लगे सब पायनि परसन । पुलकित-तन नर-नाह सबनिभुज भरि-भरि भेट्यौ। पूछि-पूछि कुसलात तोपि दारुन दुख मेट्यौ ॥ २० ॥ तब सब हठ करि उबटि भूप सादर अन्हवाए । बसन बिभूषन बिबिध-भाँति हिय हुललि धराए॥ रसना-रंजन बहु प्रकार व्यंजन सुचि परसे। सवनि संग बैठाइ पाइ भूपति सुख-सरसे ॥ २१ ॥ गिरिजा-नंदन बंदि चले चढ़ि चढ़ि सब स्यंदन । भरत भूरि आनंद करत नरबर-अभिनंदन ॥ जहँ-तहँ उतरि भुसाल गंग-कल-कीरति गावत । मग के परम पुनीत धाम अभिराम लखावत ॥ २२ ॥ इहि विधि सुरसरि-तीर-तीर कासी लौँ आए । तहाँ पूजि पुनि माँगि बिदा लोचन जल छाए ॥ बिस्वनाथ-पद बंदि बिबिध द्विज-गन सनमाने । चले अवध-पुरि-ओर उमगि उर आनँद-साने ॥ २३ ॥ नृप-आगम-सुभ-समाचार पुर-बासिनि पाए । चौहट हाट बिराट बाट बहु ठाट सजाए । ध्वजा पताका प्रचुर चारु तोरन छबि-छाजी । मंजुल मंगल-कलस रंभ-खंभनि की रानी ॥ २४॥