पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३२८

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बालक बलित-बिनोद फिरत देखत सो मेला । कोउ कछु कौतुक लखत कोऊ कहुँ करत झमेला ॥ कोउ छेकत छैलात देखि कहुँ मंजु खिलौना । कोउ ऐंठत इठलात मिठाइनि के लहि दौना ॥ ३० ॥ सिंह-पारि पर भई धीर सोभित अति भारी । हय गय स्पंदन सुभग सजे बहु बाँधि पँत्यारी ॥ सेनप-सेनी लसति अस्त्र-सस्त्रनि सौं साजी । जहँ-तहँ राजति रुचिर राज-काजिनि को राजी ॥ ३१ ॥ लै लै कंचन-कलस कहूँ सुभ सुघर सुआसिनि । साजे मंगल-थार थिरकि गवनति मृदु-हासिनि । बंदी मागध मूत सुजस गावत सुख-कारी । भीर सँभारत लिए पुरट-लकुटी प्रतिहारी ॥ ३२ ॥ घंटा - संख - मृदंग - झाँझ - भेरी-धुनि छाई । भूप-मंडली मंडि नगर तब लौँ तहँ आई ॥ लही सबनि सुख-मोट चोट धौंसनि पर धमकी । मनहु अवध पर घेरि घटा आनंद की धमकी ॥ ३३ ॥ बंदे विप्र-समाज राज-कुल-जन नृप मैंटे । पूछि कुसल हँसि हेरि प्रजा-परिजन-दुख मेटे ॥ पुलकि पूजि कुल-देव दान दै अवसर-बारे । मुनि-नाथहिँ सिर नाइ पाय अंतःपुर धारे ॥ ३४ ॥