पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३२

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आवै इठलात नंद - महर - लड़तौ लखि, पग-पग भाइ-भीर अटकति आवै है रूप-रस-माती चारु चपल चितौनि कुल, गैल गहिबे कौँ हठि हटकति आवै है। अवनि-अकास-मध्य पूरि दिग-छोरनि लाँ, छहरि छबीली छटा छटकति आवै है मटकत आवै मंजु मोर को मुकुट माथें , बदन सलोनी लट लटकति आवै है॥१॥