पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३३

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आए अवधेस के कुमार सुकुमार चारु, मंजु मिथिला की दिब्य देखन निकाई हैं। सुनि रमनी - गन रसीली चहुँ ओरनि तें, मौरनि की भौर दौरि दौरि उमगाई हैं। तिनके अनोखे-अनिमेष-ग पातिनि पै. उपमा तिहूँ पुर की ललकि लुभाई हैं। उन्नत अटारिनि पै खिरकी-दुवारिनि पै, मानौ कंज-पुंजनि की तोरन तनाई हैं ॥२॥ अब न हमारौ मन मानत मनाएँ नैकुँ, टेक करि बापुरौ बिबेक नखि लेन देहु । कहै रतनाकर सुधाकर-सुधा का धाइ, तृषित चकोरनि अघाइ चखि लेन देहु ॥ संक गुरु लोगनि के बंक तकिबे की तजि, अंक भरि सिगरौ कलंक सखि लेन देहु । लाज कुल-कानि के समाज पर गाज गेरि, आज ब्रजराज की लुनाई लखि लेन देहु ॥३॥ सो तो करै कलित प्रकास कला सेोरस लौँ, यामैं बास ललित कलानि चौगुनी का है। कहै रतनाकर सुधाकर कहावै वह, याहि लखें लगत सुधा का स्वाद फीका है ॥