पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३६

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फूलनि की सेज ते सुगंध सुखमा सी उठी, प्रात अगिरात गात आरस-गहर है। कहै रतनाकर विभावरी विलासनि की, सुधि साँ सलोने अंग-अंग थरहर है। सुघर सराटे परे पट पचतोरिया पै, उमगति फूटि छवि-फाव की फहर है। कसनि सुरंग संग मोतिनि की सेनी खुली, बेनी पर तरल त्रिवेनी की लहर है ॥ १० ॥ हीर-फेन कैसी फवी अमल अटारी पर, आई सुकुमारी प्रान-प्यारी नँद-नंद की। माना रतनाकर-तरंग-तुंग-शृंग सुखमा सुहाई लसै कमला सुछंद की । जैसे दीप-दीपति पै दीप मनि-दीपति है, दीपमनि पै ज्यौं दुति दामिनि अमंद की। निखिल नछत्रनि पैचंद की प्रभा है जिमि, चंद की प्रभा पै त्यौँ प्रभा है मुख-चंद की ॥१।। सोभा-सुख-पुंज वा निकुंज उमड्यौ सौ आज ग्वाल गयौ कोऊ इमि कहत कहानी सी। सो सुनि ललकि जाइ ज्यौँ उत बिलोकी एक, बाल मनमथ-मन-मथन-मथानी सी॥