पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सी। ख्याल परी ग्वाल की सुढाल मृदु मूरति सो, रस - रतनाकर - तरंग उमगानी बिहँसि बिलोकि लाल लाल ललचाने धुरि, मुरि मुसकाइ सो सकोच-सरसानी सी ॥१२॥ जगर मगर ज्योति जागति जवाहिर की, पाइ प्रतिबिंब-भोप आनन-उजारी की। छबि रतनाकर की तरल तरंगनि पै, माना जगाजोति होति स्वच्छ सुधाधारी की। संग मैं सखी-गन के जोबन-उमंग-भरी, निरखति सेोभा हाट बाट की तयारी की। जित जित जाति बृषभानु की दुलारी फबी, तित तित जाति दबी दीपति दिवारी की ॥१३॥ जरद चमेली चारु चंपक पै अोप देति, डोलति नबेली हुती सदन-बगीची मैं । कहै रतनाकर सुदुति सुखमा की जाकी, दमकि रही है दिव्य पूरब प्रतीची मैं ॥ भुज भरि लीनी रसदानि आनि औचक हौँ, लरजि लरजि परी बाम खीचा खीची मैं। हिरकि रही है स्याम अंक मैं ससंक मनौ । थिरकि रही है बिज्जु बादर-दरीची मैं ॥१४॥