पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४०

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धरे पाइ अन्हाइवे कौँ जल्द मैं, अंग अंग फुरैरिनि सौं थहरें । रतनाकर धूर-कपूर निचला पै, लोग बटा लन की फहरें । कच मेचक नीठि सँभारत है, छुटिल याँ बदि साँ छहरें । मनुः गंग की मंद तरंगनि पै, सहर जाना-जल की लहरें ॥२१॥ अँजन बिनाहूँ मन-रंजन बिहारि इन्हैं, गंजन है खंजन - जुमान लटे जात हैं कहै रतनाकर विलोकि इनकी त्या नोक, पंचवान वाननि के पानी घटे जात हैं। स्वच्छ सुखमा की समता की हम ताल खिले, विविध सरोजनि साँ होन पटे जात हैं। रंग है री रंग तेरे नैननि सुरंग देखि, भूलि भूलि चौकड़ी हुरंग करे जात हैं ॥ २६ ॥ बैठे भंग बानत अनंग - अरि रंग रमे, अंग-अंग अनँद-तरंग छवि छावै है। कहै रतनाकर कछूक रंग ढंग और, एकाएक मत्त है भुजंग दरसावै है ॥ तू वा तारि साफी छोरि मुख विजया से मोरि, जैसैं कंज-गंध पै मलेंद मंजु धावै है। बैल पै विराजि संग सैल-तनया लै वैगि, कहत चले यौँ जान्ह वाँसुरी बजावै है ॥ २३ ।।