पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४१

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जाके सुर-प्रबल-प्रवाह को झकोर-तार, सुर - मुनि -बृद - धीर - कुधर ढहावै है। कहै रतनाकर पतिब्रत - परायन की, लाज कुल-कानि की करार बिनसावै है ॥ कर गहि चिबुक कपोल कल चूमि चाहि, मृदु मुसकाइ जो मयंकहिँ लजावै है ग्वालिनि गुपाल सौँ कहति इठलाइ कान्ह, ऐसी भला कोऊ कहूँ बाँसुरी बजावै है ॥ २४ ॥ निकसत नैं कु ही अनेक मन-मोहन का, करषन-मंत्र मँज्यौ बाँसुरी-बदन तैं । कई रतनाकर रसीले सुर-ग्रामनि तें, रागिनी रंगीली दाबि आँगुरी रदन नैं ॥ गेहनि तँ गोपिका सची त्यौँ सुनि मेहनि तैं, नेहनि त नाधी नाग-कन्यका छदन तें अंबर तँ किन्नरी कुरंगी कल कानन तैं, निकसति पन्नगी पिनाकी के सदन तें ॥२५॥ कानि की सौति शुमान की बैरिनि, स्वैरिनि लैंौँ गलगाजि रही है। जीवन दै जड़ कौं रतनाकर, जीवित कौँ जड़ साजि रही है। जोगिनि को हिय-नादहूँ बाद कै, आपना बाद ही छाजि रही है। लाज समाज पै गाज गिरै ब्रज-राज की बाँसुरी बाजि रही है ॥२६॥ "