पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

त्रिवली तरंगनि के परत झकार माहि, भौंर माहि नाभी के निरंतर भुलान्यौ जात । कटि-तट जाइ पै न पाइ कछु दाइ तहाँ, हेरत ही हेरत सु मो मन हिरान्यौ जात ॥३७॥ संग मैं सहेलिनि के जोबन-उमंग-रली, वाल अलबेली चली जमुना अन्हाइ के कहै रतनाकर चलाई कान्ह काँकर त्यो, ठठकि सुजान सखियानि सौं पछाइ के ।। दाएं कर गागरि सँभारि झुकि वाई और, बाएँ कर-कंज नै चूँघट उठाइ के। दै गई हिये मैं हाय दुसह उदेग दाग, लै गई लडैती मन मुरि मुसुकाइ कै ॥३८॥ नागरी नवेली अरबिंद-मुखी चोप-चढ़ी, कढ़ी जमुना सौं जल बाहिर अन्हाइ झीनौ नीर भीनौ चीर लपट्यौ सरीर माहि, परत न पेखि तन-पानिप समाइ कै॥ लाल ललचौहैं तहाँ सौंहैं आनि ठाढ़े भए, हेरत हसौं हैं अंग अंगनि लुभाइ के। कर उर ऊरुनि दै झुकि सकुचाइ फेरि, धाइ जमुना मैं धंसी मुरि मुसुकाइ कै ॥३९॥