पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५०

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मान कियौ मोहन मनीसी मन मौज मानि, पानि जोरि हारीं जब सखियाँ मन्यौ नहीं। तब बरजोरी करि नवल किसोरी भेस, ल्याई केलि-भौन नैक टेकहि गन्या नहीं । प्यारी बनि प्रीतम भुजनि भरि लीन्यौ उन, कल छल कीन्यौ बहु जात सु भन्यौ नहीं। प्रथम समागम सौ सबही बन्यौ पै एक, अंक तैं छटकि छूटि भाजत वन्यौ नहीं ॥४९॥ दीप.पनि-दिव्य-दीप-दाम-दुति-दीपति सौं, दीसत न दाएँ देह दीठि सौ दुरनि की। कहै रतनाकर अनंग-रंग मंदिर को, रंग लखि दंग होति अंगना सुरनि की ॥ केलि-सुख-संपति का दंपति सकेलि रहे, आपै अंग आतुरी उमंग की घुरनि की । लाजनि लजनि लाडिली के लोल लोचन की, बाजनि बजनिये अनूप नूपुरनि की ॥५०॥ करत कलोल केलि-मंदिर अखंड दोऊ, सुखमा सकेलि ब्रहमंड के पुरनि की। कहै रतनाकर ममूस मैनका की मैन, सुनि धुनि धीमी घू घुरुनि के घुरनि की ॥