पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५२

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गूंथन गुपाल वैठे बेनी बनिता को प्राप, हरित लतानि कुंज माहि सुख पाइ के । कह रतनाकर सँवारि निरवारि वार, बार वार बिबस विलोकत बिकाइ के । लाइ उर लेत कवौँ फेरि गहि छोर लखें, ऐसे रही ख्यालनि मैं लालन लुभाइ कै कान्ह-गति जानि कै सुजान मन मोद मानि, करत कहा ही कयौ मुरि मुसुकाइ कै ॥५५॥ मुख-चंद की चारु मरीचिनि सौं, दृग दोउनि के सियराने रहैं। रतनाकर त्यौँ मुसकानि लजानि के, हाथनि दोऊ बिकाने रहैं । इनकै रँग वै उनकै रंग ये, रुचि सौँ दिन रैनि रंगाने रहैं। पुलकाने रहैं मुलकाने रहैं, सुख साने रहैं हरियाने रहैं ॥५६॥ बैठी बनि स्याम बाम मंजुल निकुंज-धाम, काम हू पै तैसी..... ............. कहै रतनाकर कै लाल का अनूप बाल जाको विधि हूँ पै रूप ढारत बन नहीं ॥ ल्याई तहाँ सुघर सहेली चहुँ फेर घेरि, बिकस्यौ बिनोद सो उचारत बनै नहीं। उत तौ बनै न अंक भरत निसंक चाहि, बाहिँ इत ढीली हू निवारत बनै नहीं ॥५॥