पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५५

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झूमि भूमि लेति सुख चूमि चूमि लेति मुख, दूमि दूमि अरुनि तँ उर तैं दवाए लेति । पूरन प्रभाव विपरीति को प्रकासि प्यारी, प्रथम समागम को बदलौ चुकाए लेति ॥६३॥ भान ठानि सुघर सुजान सखियानि बीच, बैठी जहाँ भीचि भाइ आनँद उमंग के । कहै रतनाकर पधारे घनस्याम तहाँ, सुखमा-समूह धारे कोटिक अनंग के ॥ चलि चलि जात तितै रोकत रुकैं न नैन, तब छै छबी छल राखन कौं रंग के। दे दियौं हँसाहै हेरि घेर पट घूघट को, कै दियो कुरंग कैद मुख मैं तुरंग के ॥६४॥ चोप चाक चढ़ि चख नोकनि खरादे गए, बिरह-विषाद-खाद-खचित लखात हैं। लाख-अभिलाष-अनुराग-राग-रंजित है, कहै रतनाकर सनेह सरसात हैं। कान्ह ही से पीर-हीन पीर के परे हैं पानि, चलि चाडोर लौँ अधीर अकुलात हैं। आस-गुन-ऐचनि सौँ बिबस विचारे पान, आनि अधरानि फेरि फिरि फिरि जात हैं ॥६५॥