पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५६

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मारै मन मारै पै न सैन मृगनैनिनि पै, चूरै विष चूंदें ना सुधाऽधर पियाली में । चोप ना चढ़ावै भौंह-बाढ़ पै उतारि देहि, घाट के असी पै बरु नारहि उताली मैं ॥ विषधर काली की फनाली मैं परै तौ पर, भूलि हूँ परै न कहूँ झूलि अलकाली मैं । देहि मुख-चंदै अनुराग मैं न मन देहि, सादर मयंक बरु वादर गुलाली मैं ॥६६॥ जोबन की माँगति जगाति इठलाति जाति, अलख जगावति अनंग-प्रभुताई की। कहै रतनाकर गुसाइनि निराली एक, आली धरे अंगनि विभूति सुघराई की ॥ भोर ही तै हेरि फेरि पौरि पै रही है रमि, टेरि टेरि याही धुनि आसिप सुहाई की। चारु मुख-चंद की अमंद छबि गाढ़ी रहै, बाढ़ी रहै अंग अंग लहर लुनाई की ॥६७।। बैठी रहौ कीने कुलकानि की कहानी कान, कोऊ अभिमानी मान गौरब बृथा ही कौ । कोऊ पुरजन के कलंक ओट कोऊ करि, गुरुजन-संकहि निसंक चिलता ही कौ ॥