पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

टेरै हूँ न हेरै दृग फेरै हूँ न फेरै दृग, बैकल सी वा गुन उधेरति बुनति है। कहै रतनाकर मगन मन ही मन में, जानै कहा आनि मन गार कै गुननि है। होति थिर कबहूँ छनेक फिरि एकाएक, भाँतिनि अनेक सीस कवहूँ धुनति है। घाति गयौ जब तँ कन्हैया नेह काननि मैं, तब ते न नै कछू काहू की सुनति है । ७१॥ हारीं करि जतन अनेक संगवारी सबै, छन-छन अंग साई रंग गहरत है। कहै रतनाकर न ताती वात हूँ के घात, छाई चिकनाई को प्रभाव प्रहरत है ॥ आँस-मिस नैननि तँ रस-मिस वैननि तैं, अंगनि तँ स्वेद-कन खै कै ढहरत है। भीन्यौ घट जब तैं सनेह नटनागर को, तव तें न वीर धीर-नीर ठहरत है ॥७२॥ मोहन-रूप लुनाई की खानि मैं, हाँ नख तें सिखलौं इमि सानी । है रही लौनमई रतनाकर, सो न मिटै अब कोटि कहानी ।। सील की बात चलाइ चलाइ, कहा किए डारति हौ हमैं पानी । जानि परै मम जीवन सौं हठि, हाथ ही धोइबे की अब ठानी ॥७३॥ "