पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३५९

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पीर सौं धीर धरात न बीर, कटाच्छ हूँ कुंतल सेल नहीं है। ज्वाल न याकी मिटै रतनाकर, नेह कडू तिल-तेल नहीं है ॥ जानत अंग जो झेलत है यह, रंग गुलाल की झेल नहीं है थाम्हैं थमैं न बहैं असुवा यह, रोइबौ है हँसी-खेल नहीं है ॥७४॥ कंद-रस हू चातक चहत ज्यौं रहत स्वातिबुद ही कौं, मानसर हू को मन मान ना धरत है। कहै रतनाकर मलिंद मकरंद त्यागि, सौं न अनंद उधरत है ॥ भीषम पितामह की अमित अनोखी प्यास, जैसै बीर पारथ को तीर ही हरत है। जाहि पर्यो चसकौ कटाच्छ-असि-पानिप को, त्यौँ ही सो सुधाहू को सवाद निदरत है ॥७॥ जमुना सनान के सुजान रस-खानि चली, अंग-रंग बसन सुरंग चालि चालि उठे। कहै रतनाकर उठाइ पट घट कौ, चितई चपल सो चितौनि सालि सालि उठे। साँप लै खिलौने को खिलंदरी सहेली एक, औचक दिखायौ फन जाको फालि फालि उठे। उझकि झपाक झुकि झझकि हटी सो बाल, एरी वह लचक हिये मैं हालि हालि उठे ॥७६॥