पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६०

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सबही विधि रावरौ होइ चुक्यौ, तऊ चूर न कीज परेखन ही। रतनाकर रावरे ही हित की, कहै स्वारथ को चित लेस नहीं । लिए दर्पन ज्यौँ कर माहि रहै, कोऊ आप रहै पुनि दर्पन ही। निज रूप लुभाने सदा तुम यौँ , मन लै हू रहे पै वसौ मन ही ॥७७॥ धन धारत चोरी को चोर चुराई के, त्रासनि राखत पास नहीं। रतनाकर पै यह रीति महा, विपरीत ढिठाई की भाजन ही ॥ कहा कौन के आग पुकार करें, जब न्यावहूँ राव आनन ही। यह चोरी नहीं बरजोरी हहा, मन लै हूँ रही पै वसौ मन ही ॥७८॥ ज्वालनि के जाल है बगारत चहूँघाँ हठि, जारत जो जीव हाय विरह-दुखारी को। कहै रतनाकर न धीर उर आन्यौ जात, भेद न बखान्यौ जात वेदन हमारी को । ऐसौ कछु बानक बनाइ विनती कै जाइ, जासौं सियराइ आप दाप ताप-कारी को । सरस अनंद छाइ सव दुख-दंद हरै, मंद करै चंदहि अमंद मुख प्यारी कौ ॥७९॥ खेलो हसौ जाइ कै सहेली तुम कुंजनि मैं, हाँसी खेल खोइ भौन-कौन अभिलाध्यौ है। कहै रतनाकर रुचै सौ कहा जाइ उतै, प्रेम को पियालौ माष राख करि चाप्यौ है ।