पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६२

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तपि बिरहा सौं रसिक रसीली रही, कहत बनै न दसा हेरि हेरि ददरें । सीरी साँस प्यारे तब नाम सौ रही जो वास, सिथिलित आई के हिये में जब सहर ॥ तब कछु जीवन जुड़ाइ हरि जाइ ताप, ढंग होत और बलि अंग अंग थहरैं। जैसे भानु-तपित मही-तल का दंद हरै, सीतल सुगंध मद मारुत की लहरै ॥८३॥ आई भुजमूल दिए सुघर सहेलिनि पै, बाग मैं अजान जानि प्रान कछू बहरें । कहै रतनाकर पै औरहूँ विषाद बढ्यौ, याद परै सुखद सँजोग की दुपहरें । धीरज जयॊ औ जिय ज्वाल अधिकानी लखि, नीरज-निकेत स्वंत-नीर-भरी नरें। दंद-मई दुसह दुचंद भई हीतल कौं, सीतल सुगंध मंद मारुत की लहरें ॥८४॥ नींद लै हमारी हूँ दुनी दे है सुनी दे पाए, सुनत पुकार नाहिँ परी हाँ चहल में । कहै रतनाकर न ऐसी परत ति हुती, प्रीति-रीति हाय हिय जानी ही सहल मैं ॥