पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६३

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देखत ही आपने दृगनि हितहानी करी, अब पछिताति परी ताहि की दहल मैं वीर मैं अजान बलबीरहिँ निवास दियौ, नीर-सिं चे बरनी-उसीर के महल ॥८५॥ गंजित मलिंद-पुंज सघन निकुंज जहाँ, लूक लगै हीतल कौँ सीतल सुहाई है । कहै रतनाकर तहाँ ही फूल लेत ताहि, जोहि रही कान्ह के अमान बिकलाई है ॥ आवत उतै तें अबै नैं सुक निहारि दसा, उर मैं हमारे तो कसक अति आई है । बैठे आँस ढारत सँभारत न साँस एरी, तेरी मधुराई लगी लोचन लुनाई है ॥८६॥ दृग देखत साई दसौ दिसि मैं, रहौं वाही तरंग मैं दंग परी । रतनाकर त्यौँ रसना उहिँ नाम की, माधुरी के रस-रंग परी ॥ धुनि ही को सनाका सुनें , यह काननि बानि कुढंग परी । जब तँ हिय कूप में आनि अनूप, सखी हरि-रूप की भंग परी ॥८५ टारि पट घूघट का जबतें निहारि धूमि, घायल किए त कान्ह कालिँदी के कूल हैं। कहै रतनाकर कपूर चंद चंदन हूँ, देत ताप तब त अँगारनि के तृल हैं