पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६४

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तेरी गली छाँड़ि के न जात वन-बागनि मैं, सुखद निकुंज भए भूरि-मुख-मूल है । रंग रूप रुचिर बिलोकि तब आनन को, मूल लगे लागन गुलाबनि के ॥८८॥ बैठे बन विकल विसूरत गुपाल जहाँ, औचक तहाँई वाल-जोगी इक प्राइगे। कयौ रतनाकर उपाय हम ठाने जानै जदि कापै आप एतिक लुभाइगे ।। ताही छन छाइगे छलक इत आँस नैन, बैन उत आवत गरे लॉ विरुझाइगे । पाइगे न जाने कहा मरम दुहूँ के दुहूँ, हसि सकुचाइ धाइ हिय लपटाइगे ॥८९।। , तब तो हजार मनुहार कै रिझाई पर, अब उपचार के विचार सब ख्वै गए । कहै रतनाकर ललकि उर लैबी कहा, पाइ हूँ अनेकनि उपाइ सौं न छ्वै गए । देखत तो वैसेई लगत पर साँची सुनौ, सरस सनेह के सुगंध-गुन ग्वै गए । पैठत ही प्यारे मन मुकुर हमारे हाय, सारे रुख दाहिने तिहारे बाम है गए ॥९०॥