पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६६

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पावतौ कहूँ जो कोऊ चतुर चितेरी तो, दिखावतौ सुभाव सोधि कलित कलानि में। रिझवन-आतुरी हमारी अँखियानि माहि, खिझवनि चातुरी तिहारी मुसकानि मैं ॥१३॥ हा हा खाइ हाय कै दुखी है दरिहीं सौं देखि, सैननि मैं मंजु मूक वैन जे उचारे हैं। कहै रतनाकर न रंच तिनकी है सुधि, विकल हिये के भाय सकल बिसारे हैं। हौं तौ रही दंग देखि निपट निराला ढंग, भाव उलटे ही सब अब तुम धारे हैं। पावत ही धाम मन-मुकुर हमारैं स्याम, दच्छिन त बाम भए तेवर तिहारे हैं ॥९४|| कीजै कहा हाय तासौं चलत उपाइ नाहि, पाइ पीरहूँ जो पर-पीर उर आनै ना। कहै रतनाकर रहै ही मुख मौन गेह, कहे सुने भाव के प्रभाव भेद मानै ना ॥ सकल कथा काँ सुनि पूछत ब्यथा जो पुनि, जानिहूँ जथारथ बृथा जो गुनि जानै ना। मानै ना अजान तौ सुजान के मनैयै ताहि, कैसैं समझैयै जो सुजान वनि मानै ना ॥१५॥