पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६७

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. औखि दिखावति गुंड चढ़ी, मटकावति चंद्रिका चाव सौं पागी । त्यौँ रतनाकर गुज की माल, लगी छतिया हुलसै रंग-रागी ॥ कंदुक हू उमगै कर पाइ, सखी हमहीँ सब भाँति अभागी। रोकति साँसुरी पाँसुरी मैं, यह बाँसुरी मोहन के मुख लागी ॥९६॥ देख्यौ तुम्हें देखत सुदेखै ताहि देखनि सौं, इत उत देखि करै सैन रिझवार सी। कहै रतनाकर विलोकि पुनि बिंब माहि, साई भाव बाढ़े चाव-चटक अपार सी ॥ मोहैं नारि नारि के न रूप जो सुनी है सो तो, ताकी दसा देखि बात लगति असार सी। जब तैं बसे हैं आनि नैननि तिहारे नैन, रैनि द्यौस तब से बिलोक्या करै आरसी ॥१७॥ प्रेम-रस-पान पाइ अमर भए जो जग, सो सुठि सुधा कौँ कहि अंमृत बखानैं ना। कहै रतनाकर त्यौँ बिरह ब्यथा काँ झलि, हेलि हिय मीच को जनम जग जाने ना ॥ हम ब्रज-चंद मंद-हास पै रही हैं कटि, तीखे चंद-हास सौं हरास उर आ. ना। समरस स्याम के बिलोचन बिलोकि बीर, काम को बिसम-सर नाम मन मानें ना ॥९८॥