पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६८

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हाय हाय करत विद्याइ दिन रैनि जात, कटिवौ सुहात सदा सैननि सिरोही सौं। कहै रतनाकर उदासी मुख छाइ जाति, हाँसी विनसाइ जाति आनन विछोही सौं॥ भूख प्यास बूझति जवात झहरात गात, छार है विलात सुख-साज सब रोही सौं। हाय अति औपटी उदेग-अागि जागि जाति, जब मन लागि जात काहू निरमोही सौं ॥१९॥ जाहि लपटाइ ताहि लेति लपटाइ जोई, जाइ लपटाइ साई जानै गति याकी है। नैकु मुरझाइ नाहिँ नित उरझाइ सुर- झाइ पिय बिन ऐसी छाती कहौ काकी है। ज्वालनि की जारी तऊ पैयै हरियारी ऐसी, प्रेम रस-वारी मतवारी ममता की है। काम की लगाई अनुराग की जगाई बीर, खेल मति जानौ यह वेल बिरहा की है ॥१०॥ भरि जीवन गागरी मैं इठलाइ के, नागरी चेटक पारि गई। रतनाकर आहट पाइ कडू, मुरि चूँघट टारि निहारि गई ॥ करि वार कटाच्छ कटारिनि सौं, मुसकानि मरीचि पसारि गई । भए घाय हिये मैं अघाय घने, तिनपै पुनि चाँदनी मारि गई ॥१०॥