पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७

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दोउनि के अँग फूलनि ही के लसत विभूषन, जिनहिँ बिलोकि हेम-मनिमय लागत जिमि दूषन । दोउनि की बढ़ि रही अोप इमि साहचर्ज साँ, सदा-समीपिनि सखिहुँ लखति अति अाहचर्ज सौं॥४७॥ चहुँ दिसि करति कलोल लोल-लोचनि आलीगन, नाचति गावति बिबिध बजावति बाद मुदित-मन । सकल रूप - जोबन -अनूप-गुन- गर्ब-गसीली, जुगल-रसासव-मत्त राग-रँग-रत्त रसीली ॥ ४८ ॥ करति चंद-दुति मंद अमल मुखचंद-उजारी, मुनि-मन-माहिँ मनोज-मौज उपजावनहारी । चंचल चपल चलाँक चुलबुली चेटकहाई चुहुल चोचले चोज चाव के चाक चढ़ाई ॥ ४९ ॥ नख-सिख नव-सत सजे बैस नव-सत सुखदाई, निधि नव, सत अपसरनि सुमति लखि जिनहिँ लजाई। आपुस मैं करि छेड़छाड़ ऐति इतराती, पिय प्यारी की ओर हेरि हिय हुलसि सिरातीं ॥ ५० ॥ कोउ पद के बह भेदनि सौं रौंदति हठि हिय कौं, करि हस्तक बहु भाँति करति कर मैं कोउ जिय कौं, नैन-सैन सौँ लेति कोऊ हरि सैन नैन को, सीस फिराइ फिराइ देति कोउ सीस मैन कौ ॥ ५१ ॥