पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७१

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निकस्यौ कहूँ हाँ ब्रज-गाम है सुनौ हो स्याम, धाम धाम देखी वाम बाम ही प्रनाली पै। कहै रतनाकर न हौं तो भेद पायो तुमहू चकहौ चित कठिन कुचाली पै॥ कीन्हे रहैं दीठि कौँ कृसानु-नीठि नादन पै, दीन्हे रहैं पीठि चारु चंद्र-चंद्रिकाली पै। माने रहैं बायस कौँ पायस-पियाली देन, ताने रहैं तुपक दुनाली काकपाली पै ॥११॥ अंतक लौं बिरही जन का पुनि वायु बसंत की दागन लागी। कागनि के हित काग की पाली नए षटरागनि रागन लागी॥ कुंजनि गुंज मधुब्रत की विष के रस की रुचि-पागन लागी । फूले पलास की प्रागनि सौं बनवाग दवाग सी लागन लागी ॥११२।। भूरि-सुगंध-भरे दिग-छारनि कोकिल जागि सुरंग सी दागी। बैरी बसंत बन्या बिन कंत कहा करिहैं अब अंत अभागी। हेरि हरे भरे कानन मैं अति आगि पलास की रासि सौँ लागी । बीर सी चाँदनी में सजनी अलि-भीर हलाहल घोरन लागी ॥११३॥ हाल बाल परी है बिहाल नंदलाल प्यारे, ज्वाल सी जगी है अंग देखें दीठि जारे देति । प्रेम लोकलाज मिलि बिरह त्रिदोष भयो, कहै रतनाकर सु नैन नीर दारे देति ॥