पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७४

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देनौ वन-गैल आज छैन छरकीला एक, लोटत धरा मैं परयौ धीरज न धारै है। कहै रतनाकर लकुट बनमाल कहूँ, मुकट सुढाल कहूँ लुठित धुरा है ॥ काको कौन नैकु निरवारत न नीकै बोलि, खोलि कछु बेदन को भेद न उघारै है। आँस भरि आधौ नाम राम का उचारै पुनि, सस भरि आधैं बैन धेनु कौँ पुकारै है ॥१२०॥ 7 चसको परै ना मान-रस को कहूँधौँ वाहि, लीजै बात रंचक बिचारि हित हानि की। कहै रतनाकर तिहारे सुबरन पर, दमक दुलारी देति तमक तवानि की ॥ रोष की रुखाई रुख आवत सुसीली होति, मंद मुसकानि लै रसीली अँखियानि की। होत मृदु मीठे सीठे बचन तिहारे पाइ, कंठ कोमलाई मधुराई अधरानि की ॥१२१॥ जानति न जानि कहा मान ठानि बैठी बीर, बानि यह एरी सब भाँतिनि अनीठी है। कहै रतनाकर प्रभाकर-उदोत होत, तौहूँ रस-राँचति न ऐसी भई सीठी है ।