पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७५

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ब्यापति तिन्हैं न मान मिरच तिताई नै कु, पावति सवाद-सुख ऐसौ कछु दीठी है । स्याम-सहतूत लौँ सलूनी रस-रासि भरी, सूधी ते सहस्र गुनी टेढ़ी भौंह मीठी है ॥१२२॥ बिलग न मानियै बिहारी बर वारी बैस, कहा भयौ जोपै अनाही करी दीठी है। तुम रतनाकर सुजान रस-खानि वह, निपट अयानि वासौँ टानी क्यौँ अनीठी है । सरस सु रोचक मैं आकृति विचार कहा, कैसे हूँ बिगारौ नाहि होनहार सीठी है। टेढ़ी ते सहस्र गुनी सूधी भौंह मीठी अरु, सूधी ते सहस्र गुनी टेढ़ी भौंह मीटी है ॥१२३॥ एरी ब्रज-जीवन की जीवन अधार बेगि, सहज सिँगार सौं पधारि सरवर पैं। कहै रतनाकर न बात कहिवे को समै, ठसक उठाइ ताइ दीजै सिकहर पैं॥ लाग अनुराग की रही है इमि लागि सही, जाति बिरहागि ना दवागि-पान-कर पैं। प्रबल बियोग-रोग निबल कियौ है इमि, धीरज धरयौ न जात लाल गिरिधर पैं ॥१२४॥