पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७६

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विनती बखानी अनगिनती न मानति है।, किनती सिखायौ मान करिबौ कुंवर पै। कहै रतनाकर रिझाएँ नाहिँ रीझति हो, खीझति हौ उलटी कपाल दिए कर पै॥ पलटि प्रभाव परचौ पाँचही घरी मैं यह, आवत अचंभौ जाति आँगुरी अधर एरी अबला तू गुरु मान इत धारै उत, धीरज धरयौ न जान लाल गिरिधर पै॥१२५।। पै 7 हा हा खात द्वार पै दुखी है द्वारपालनि की, नाइनि औ मालिनि की बिनती महा करै। कहै रतनाकर कहै तौ बोलि ल्याऊँ उन्हैं बहुत भई री अब सुंदरि छमा करै ॥ सुनि सखि बानी सतराइ मुसकानी बाल, ताकि छबि ताकि कौन कबि कबिता करै। अनख अनोखी ललचानि रस-पोषी बीच, प्रान परे साँक न हाँ करै न ना करै ॥१२६॥ प्यार-पगे पिय प्यारे सौँ प्यारी कहा इमि कीजति मान-मरोर है। है रतनाकर पै निसि बासर तौ छवि-पानिप कौँ तरस्यौ रहै ॥ है मनमोहन मोह्यौ पै तोपर है घनस्याम पै तेरौ तौ मोर है। है जगनायक चेरौ पै तेरौ है है ब्रज-चंद पै तेरौ चकोर है ॥१२७॥