पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७७

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और प्रभा, अनि अभिराम रस-धाम घनस्याम आनि, घूमत चहूँघाँ रहै नकुहूँ न कल कहै रतनाकर प्रतच्छ अच्छ जिनके प्रभाव साँ पगी है थल थल मैं ॥ ऐसे सुभ और न सुहात मानि मेरी बात, ताप मिटि जैहे सब एक ही विपल में । चलि कै निकुंज माहि लहि सुख-पुंन बीर, बैठी कहा करति उसीर के महल में ॥१२८॥ ललित त्रिभंग जाके अंग को बनाव नीको. रति के धनी को रंग फीको दरसाए देत । कहै रतनाकर कछूक बांसुरी जो पूँकि, तान बनितानि हेत नावक बनाए देत ॥ सोई चैठि विकल विमूरत निकुंज माहि, तोहिं रूप जोवन अनूप गरवाए देन । अचल न रहै यह मचल तिहारी वीर, चल चख ताके चल अचल चलाए देत ॥१२९।। पाइ रासमंडलहरास जो उदास भयो, ताके दाव पावन की आन चढ़ि जाति है । कहै रतनाकर न तातें कछु भाई आन, तोहि सुनि और हूँ अठान चढ़ि जाति है ।।