पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७८

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एरी बृपभानुजा तिहारे हगवाननि पै, ज्याँही सुरमे सौं सुठि सान चढ़ि जाति है। रूप-गुन-रव-मथैया मनमोहन पै, त्यों ही मनमथ की कमान चढ़ि जाति है ॥१३०॥ तुम तौ बिगारि बैठी चेष ही खिझावन को, मेरी जान सेो तौ ताहि अधिक रिझावैगौ । कहै रतनाकर न ध्यान यह आनति हो, मान यह औरहूँ अठान ठनवावैगा ॥ दैहै हास-औसर अनौसर परोसिनि कौं, सौतिनि की चेत्यौ चित बानक बनावैगा । भावैगौ कहूँ जो यह रूप रसिया का तोपै, रूसिबो ही रूसिबौ तिहारै बाँट आवैगौ ॥१३॥ आए तहाँ औचक कछुक अतुराए कान्ह, चुनति हुती है जहाँ सुमन सुबेली के। कहै रतनाकर चपल चहुँ ओर चाहि, पैठत ही मंजुल निकुंज कल केली के ॥ गात मुरझाने उर हार कुम्हिलाने कल, पल्लव सुखाने बर बल्लरी नबेली के । आई माल गूंथन गुपाल-हेत इयाँ हाँ सुनि, हँसत तिहारे फूल झरत चमेली के ॥१३२॥