पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८२

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जैसे दरपन मैं दिखात उलटीई सब, सूधौ पर जानि जात जब लखिबे लगौ । मेरे अन मुकुर अमल स्वच्छ माहि त्यौही, कपट किऐं हूँ प्यारे निपट भले लगौ ॥१४१॥ अंजन अधर श्री कपोल पीक-लोक लसै, रसिक बिहारी बेस वानिक बने लगौ । कहै रतनाकर धरत डगमग पग, तात माहि मेरे ही वियोग मैं जगे लगौ ॥ जानत जगत सब तैसोही दिखात ताकौं, जैसौ चसमा है जब जाके चष मैं लगौ । नेह की निकाई छाई नैननि हमारै तातें, कपट किऐं हूँ प्यारे निपट भले लगौ ॥१४२।। आए उठि प्रात गोल गात अलसात मुख, श्रावति न बात माल भावत कसीस है। कहै रतनाकर सुधाकर मुखी सेा लखि, बिलखि न बोली रही नी. करि सीस है। कर कुच-कोर ओर बढ़त पिया को पेखि, भावती चढ़ाई भौंह भाव यह दीस है । जानि पंचवान की चढ़ाई ईस-सीस मानौ, रीस करि तानत कमान रजनीस है ॥१४३॥