पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८४

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साल की न नैननि की नैं कु हूँ संभाल भई, लागी टकटकी दसा है गई बिहाल की। हाल की कहै को जब आधे पल पेखि राधे, मूठि सी चलाई मूठी भरि कै गुलाल को ॥१४६॥ मौज भरी साजन मनोज-सेज भौन लागी, आतुर तुराई की तुलाई हान लागी है । कहै रतनाकर रंगीन चीर चोलनि की, परदे अमोलनि की चोप चित पागी है। आवत हिमंत दुरि चंदन कपूर भए, केसर कुरंग-सार माहि रुचि रागी है। सुमिरि अनंद केलि मंदिर को सुंदरीनि, अमित अनंग की तरंग अंग जागी है॥१४७॥ बरसत पाला पौन लागत कसाला होत, गाला होत हिम को दुसाला सियरान सौं। कहै रतनाकर प्रभाकर निकाम होत, काम होत नैं कहूँ न तपता कुसान सौं॥ ऐसे समय मान करिबे मैं अपमान होत, पान होत बावरी बिकल कलकान सौं। घर घर घेर होत सौतिनि के सैर होति, बैर होत प्रबल प्रपंची पंचबान सौं ॥१४८॥