पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८८

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गोपी-वाल-गैयनि के गौरव गुमान बड़े, सुजस सुगंध को सुऔसर ठयौ नयौ । नंदराय-मंदिर अमंद उदयाचल तैं, गोप-कुल-कुमुद-निसाकर उदय भयौ ॥१५६॥ पाप-पंकजात जातुधान मुरझान लगे, प्रफुलित गोपी-गोप-गैयान की कैदयो । कहै रतनाकर अनन्य ब्रतधारिनि कौ, सब दुख दंद दूरि देखत ही है गयौ ।। दृषन बिहीन सीस-भूषन दिगंबर को, जासौं रिति अंबर को आनंद महा छयौ । नंद-पुन्य-पूरब-अपूरब पयोनिधि सौं, गोप - कुल - कुमुद - निसाकर उदै भयौ ॥१५७॥ जोहत अटारी पुर-द्वारी सब नारी नर, जानि मनभावन को श्रावन-समै भयो । कहै रतनाकर उचाइ पग चाय चढ़े, चपल चितौत चोप चित अति सै भयो । ताही बीच मोद की मरीचि आई आनन पै, चारों ओर सार यह सानंद सलै भयौ । गोरज-समूह-घन-पटल उघारि वह, गोप- कुल - कुमुद - निसाकर उदै भयौ ॥१५८॥